हरियाणा में विधानसभा चुनाव के नतीजे भारतीय राजनीति में बड़े बदलाव का संकेत दे सकते हैं। कांग्रेस और बीजेपी की टक्कर के बीच जाट समुदाय की भूमिका अहम होगी। दलित वोट भी निर्णायक साबित होंगे। इससे हरियाणा की सत्ता में नया मोड़ आ सकता है। कांग्रेस के तीन नेताओं ने मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की है।

नई दिल्ली: हरियाणा में मंगलवार को आने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे बेहद अहम हैं। इन नतीजों से यह पता चलेगा कि कांग्रेस बीजेपी से एक और राज्य छीनने में कामयाब होती है या नहीं। साथ ही, इन नतीजों का असर महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों पर भी पड़ेगा, जहां जल्द ही चुनाव होने की उम्मीद है। चुनावी सर्वे और जमीनी रिपोर्टों के मुताबिक कांग्रेस की स्थिति मजबूत नजर आ रही है। अगर कांग्रेस हरियाणा में जीत हासिल करती है तो यह हिंदी पट्टी में विपक्षी दलों, खासकर कांग्रेस, की मजबूती को दर्शाएगा। पिछले एक दशक से हिंदी पट्टी बीजेपी का गढ़ रहा है।

हरियाणा में बदलाव की लहर
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी ने इंडियन एक्सप्रेस में दिए गए लेख में कहा, हरियाणा में इस बार बदलाव की चाहत साफ दिखाई दे रही है। यहां तक कि बीजेपी के गढ़ माने जाने वाले अहीरवाल और जीटी रोड क्षेत्रों में भी कांटे की टक्कर देखने को मिल सकती है। बदलाव की इस चाहत को लोग अपनी बातचीत में भी जाहिर कर रहे हैं। उन्होंने गुड़गांव जिले के बादशाहपुर में एक ढाबे पर मिले एक ड्राइवर का उदाहरण दिया, जिसने कहा, ‘मार्केटिंग में आप हमेशा कुछ नया ढूंढते रहते हैं। लोग पुराने मैसेज से ऊब गए हैं… यह ऐसा है जैसे किसी फिल्म को छठी बार देखा जाए।’

क्या कह रहे आंतरिक सर्वे?
राजनीतिक दलों के आंतरिक सर्वे भी यही बता रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक, बीजेपी के एक आंतरिक सर्वे में अनुमान लगाया गया है कि कांग्रेस को 60, बीजेपी को 20 और क्षेत्रीय दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को 10 सीटें मिल सकती हैं। बीजेपी के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर, मनोहर लाल खट्टर की अलोकप्रियता और नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी का कुछ खास कर न पाना कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है।

बीजेपी के खिलाफ जाट वोट!
इस बार हरियाणा में जाट समुदाय, जिसकी आबादी लगभग 25% है, कांग्रेस के साथ जाता दिखाई दे रहा है। पिछले चुनावों में जाट वोट कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों के बीच बंट गया था। तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों के आंदोलन के बाद से ही हरियाणा में बीजेपी के खिलाफ माहौल बनना शुरू हो गया था। इस आंदोलन में जाट समुदाय ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। जाट समुदाय 2014 में पंजाब के एक खत्री नेता मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाए जाने से नाखुश था। पिछले साल बीजेपी के पूर्व सांसद बृज भूषण शरण सिंह पर लगे यौन शोषण के आरोपों के खिलाफ पहलवानों का विरोध प्रदर्शन भी जाट समुदाय की नाराजगी का एक बड़ा कारण बना। विनेश फोगाट, साक्षी मलिक और अन्य महिला पहलवानों की लड़ाई सिर्फ न्याय की ही नहीं बल्कि जाट सम्मान की भी लड़ाई बन गई।

विनेश फोगाट का कितना प्रभाव?
कांग्रेस के टिकट पर जुलाना से चुनाव लड़ रहीं विनेश फोगाट न सिर्फ राज्य और देश की युवतियों बल्कि पुरुष प्रधान जाट समुदाय के लिए भी एक नई प्रेरणा बनकर उभरी हैं। जब वह पुरुषों की एक सभा को संबोधित कर रहीं थीं और सब उनकी बातों को ध्यान से सुन रहे थे तो यह हरियाणा के समाज में आ रहे एक बड़े बदलाव को दर्शाता है। साफ है कि जाट समुदाय का गुस्सा (“जाट हर चीज दांत की चोट पर कहता है”) कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित हो सकता है।

क्षेत्रीय दलों का प्रभाव हुआ कम
चुनाव प्रचार के दौरान यह भी देखने को मिला कि इंडियन नेशनल लोकदल (INLD) और जननायक जनता पार्टी (JJP) जैसे क्षेत्रीय दलों का प्रभाव कम हुआ है। अब देखना यह है कि क्या इन दलों के कमजोर होने से कांग्रेस को फायदा होगा या फिर कांग्रेस के पुनरुत्थान के कारण ये दल कमजोर हुए हैं? चुनाव परिणाम इस सवाल का जवाब दे पाएंगे। वहीं दूसरी तरफ, 2014 और 2019 में बीजेपी को सत्ता दिलाने वाला गैर-जाट वोट बैंक इस बार उतना मजबूत नजर नहीं आ रहा है।

जाट बनाम गैर-जाट का मुद्दा
हरियाणा की राजनीति में जाट बनाम गैर-जाट का मुद्दा हमेशा से रहा है। लेकिन इस बार चुनावी लड़ाई सत्ता विरोधी लहर पर केंद्रित दिखाई दे रही है। गैर-जाट समुदाय के लोग भी बदलाव की बात कर रहे हैं। दलित समुदाय इस चुनाव में निर्णायक भूमिका निभा सकता है। हालांकि हरियाणा की राजनीति पर जाट समुदाय का दबदबा रहा है, लेकिन लोकसभा चुनावों में दलित और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस के साथ गया था। इस कारण कांग्रेस 10 में से 5 लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब रही थी।

सभी राजनीतिक दल दलित वोटरों को लुभाने की कोशिश कर रहे हैं। यहां तक कि जाट प्रधान क्षेत्रीय दल भी दलित दलों के साथ गठबंधन कर चुके हैं। अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो जाट-दलित तनाव उसके लिए परेशानी का सबब बन सकता है।

दलित वोट निर्णायक साबित होगा
गुड़गांव जिले में स्थित सोहना विधानसभा क्षेत्र के एक दलित बस्ती में कांग्रेस को वोट देने जा रहे एक समूह ने पार्टी की सिरसा से सांसद कुमारी सैलजा को मुख्यमंत्री बनाए जाने की वकालत की। सैलजा दलित समुदाय से आती हैं और महिला होने के कारण उन्हें फायदा मिल सकता है। ये लोग पहले से ही यह सोचकर चल रहे थे कि सरकार कौन चलाएगा और उनका मानना था कि अगर सैलजा “घर पर ही बैठी रहतीं” जैसा कि उन्होंने लगभग दो हफ्ते तक किया, “तो बीजेपी जीत जाती”। उन्हें डर है कि अगर भूपेंद्र सिंह हुड्डा मुख्यमंत्री बनते हैं तो “जाटशाही” वापस आ जाएगी।

तीन नेताओं ने सीएम पद की दावेदारी पेश की
हुड्डा और रणदीप सिंह सुरजेवाला के साथ ही सैलजा ने भी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की है। हालांकि तीनों नेताओं का कहना है कि आलाकमान ही इस बारे में अंतिम फैसला लेगा। लेकिन हरि नगर के दलित मतदाताओं समेत कई लोगों को लगता है कि आलाकमान पहले ही अपना मन बना चुका है। राज्य इकाई पर मजबूत पकड़ रखने वाले हुड्डा ने टिकट बंटवारे में अपनी चलवाई।

यहां तक कि अगर हुड्डा फिर से मुख्यमंत्री बनते हैं, तो भी वह 2005 से 2014 तक अपने 10 साल के कार्यकाल की तरह इस बार पूरी तरह से अपनी मनमानी नहीं कर पाएंगे। क्योंकि इस बार दिल्ली में नरेंद्र मोदी की सरकार है और राहुल गांधी का कद भी बढ़ा है। हुड्डा ने सभी ’36 बिरादरियों’ को साथ लेकर चलने और समावेशी सरकार देने का वादा किया है। एक समय तो उन्होंने चार उपमुख्यमंत्री बनाने की बात भी कही थी।

हरि नगर के दलितों ने कांग्रेस की इस समस्या का एक हल सुझाया है। अगर हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाया जाता है तो सत्ता में भागीदारी का एक ऐसा फॉर्मूला बनाया जाए जो लागू भी हो सके और जिससे हुड्डा सैलजा की भी सुने और उनकी (सैलजा) भी चले।

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